आज हम जानेंगे की एक औषधीय पौधा एलोवेरा की खेती aloe vera ki kheti kaise kare in hindi जो की खेती किस प्रकार की जाती है इसे हम घृतकुमारी भी कहते है, आज बाजार में एलोवेरा के मांग काफी बढ़ गई है | क्योंकि यह औषधीय पौधा होने के साथ साथ इसका उपयोग सौन्दर्य उत्पाद बनाने के लिए भी बहुतायत रूप में होता है | इसकी खेती से यह किसान को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से लाभ पहुँचाता है |एवं इसकी खेती करना भी बहोत आसान है | लोग सजावट हेतु इसे अपने घर में गमलो में भी लगा कर रखते है इसके अनके नाम भी हैजैसे – ग्वारपाठा,घृतकुमारी आदि | इसके पौधे की ऊंचाई एक फीट से लेकर तीन फीट तक होती है तथा इसके पत्ते की लम्बाई एक से डेढ़ फीट तक होती है | इसके कई प्रजातियाँ है जिनसे अलग अलग रोगों की दवाएँ बनती है सामान्यत इसका पौधा हल्का हरा रंग का होता है | तथा पत्तो के छोर नुकीले एवं किनारे काटेदार आकृति की होती है | इसका वैज्ञानिक नाम – बारबन्डसिस है
वैसे तो इसकी खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है किन्तु ऐसी मिट्टी जिसमे थोड़ी बालू की मात्रा (लगभग 30% से 40%) हो ऐसी मिट्टी में इसकी पैदावार सबसे अधिक होती है | क्योंकि ऐसी मिट्टी में फसलों तक वायु एवं पानी आसानी से पहुँच पाती है |
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एलोवेरा (घृतकुमारी) की खेती के लिए खेतो को तैयार करना एवं रोपण –
किसी भी फसल को लगाने से पहले खेतो की जुताई की जाती है जुताई से पहले 4 से 6 टन गोबर खाद प्रति एकड़ इसके साथ 50 कि.ग्रा. यूरिया+ 60 कि.ग्रा. फास्फोरस + 13 कि. ग्रा. पोटास भूमि में मिला लें इसके बाद कम से कम 2 बार जुताई करके समतल कर उसपर उठीं हुए क्यारियां बना ले प्रत्येक क्यारियों की एक दुसरे से दुरी कम से कम 2 फीट होनी चाहिए |आप क्यारियों का निर्माण मौसम के अनुसार करें | मेड की तरह उठी हुए क्यारिय बरसात के मौसम में उपुक्त होती है | तथा गर्मी में नालियों की तरह क्यारियों का निर्माण करना चाहिए | प्रति एकड़ में 5000 पौधों की रोपाई की जा सकती है | तथा प्रत्येक पौधे की दुरी कम से कम 18 से 20 इंच होनी चाहिए |
खेतो में लगाये जाने वाले पौधे की नर्सरी एवं रोपण हेतु उसका चयन –
अधिक से अधिक उत्पादन के लिये एलोवेरा के अच्छे ब्रिड का चयन करना अति आवश्यक है भारत में 2 प्रजातियाँ अधिक उत्पादन के लिय प्रचलित है इनमे कीट रोधन क्षमता भी अधिक है –
IEC 111271
ICE 111269
इसके साथ ही सिम सीतल एल की भी प्रजातियाँ है जिनमे से एलोवेरा जेल की प्राप्ति अधिक होती है |
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एलोवेरा की खेती की निराई – गुड़ाई एवं रोगों और कीटो पर नियंत्रण –
वैसे तो Aloe Vera की खेती में ज्यादा समस्या नहीं होती इसकी खेती करना सरल होता है प्राम्भिक आवस्था में रोपाई के बाद इसके पौधे बढ़ने तक खेती में खरपतवार की निराई करनी चाहिए जिससे इसके पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है | जब इसके पौधे बढ़ जाते तो दोनों तरफ से उसके जड़ो में थोड़ी मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए | इससे पौधों को सीधा रखा जा सकता है | एलोवेरा की खेती में पानी की आवश्यकता भी ज्यादा नहीं होती लेकिन गर्मी के मौसम में इसकी सिंचाई की जानी चाहिए इससे उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है |ज्यादा पानी खर्च न हो इसके लिए आप सिंचाई के लिए ड्रिप जैसे सिंचाई साधनों को उपयोग में ला सकतें है | एलोवेरा में रोगों का प्रकोप भी कम ही होता है किन्तु आइये जानते है कुछ ऐसे रोगों एवं कीटो के बारे में जो की एलोवेरा की खेती को प्रभावित कर सकते है साथ ही यह भी जानेंगे की इसके लक्षण क्या होते है तथा इनके रोकथाम के लिए क्या उपाय किये जाएँ |
क्र. | रोगों के नाम | कारक जीव (कीट) | रोगों का प्रभाव व् लक्षण | इनके रोकथाम के उपाय |
01. | पत्ती धब्बा एवं सिरों का झुलसना रोग | अल्टरनेरिआ अलटरनाटा | इसके कारण पौधे के पत्तियां मुड़ जातीं हैं,भूरे रंग का हल्का धब्बा गोल आकृति का पत्तो पर बन जाता है | इससे पौधे से पत्ते सुख कर गिर जातें है | कैप्टान(0.2%) मैन्कोजेब(0.25%)या हेक्साकेप(0.2%) के साथ नियमित स्प्रे करतें रहें | स्प्रे करने से पहले संक्रमित एवं सूखे पत्तो को हटा लें | |
02. | विल्ट या मलानी रोग | फूजेरियम सोलेनाई | एक कवक जिसका नाम फूजेरियम है उससे यह रोग फैलता है | यह पौधे तक उसके भोजन एवं पानी को पहुँचने नहीं देता है| जिससे पौधे की जड़ें सड़ जातीं है | एवं पौधा सुख जाता है | पौधों की जड़ो में कार्बेन्डाजिम (0.1%),कैप्टान (0.2%) और बिनोमिल (0.1%) का घोल का प्रयोग करें | संक्रमित पौधों को उखाड़ देवें | |
03. | गोलाकार धब्बे | हेमटोनेक्टेरिया हेमटोकोका | सामान्यत एलोवेरा में इसी रोग का प्रकोप पड़ता है यह एक गंभीर बीमारी है | इस रोग में गोल गहरे धब्बे पत्तो में हो जातें है | थिओफिनेट मिथाईल (0.1%),कार्बेन्डाजिम (0.1%) तथा मैन्कोज़ेब (0.25%) छिडकाव संक्रमित पौधे को हटा कर करें | |
04. | येन्थ्रेक्नोज पत्ती धब्बा | कोलेटोट्रीईकम डेमाटीसियम | इससे पत्तियाँ धंस जाती है और धसें हुए व्यास का रंग हल्का भूरा होता है तथा पत्तो के सिरे जले हुए प्रतीत होतें है | | रोग को नियंत्रित करने के लिए 12 से 14 दिन के अन्तराल में कवकनाशी एवं कैप्टान प्रयोग करें | |
05. | मुसब्बर रतुआ | फकोस्पोरा पेयचहिर्जी | एलोवेरा के पत्तों पर फफोले उभर आतें है यह काले और भूरे रंग के हो सकतें है | | रोकथाम के लिए मैन्कोज़ेब 1 कि.ग्रा. एवं घुलन शील गंधन 1.2 कि.ग्रा. प्रति एकड़ में छिडकाव करें | डाइथेन जेड-78 (0.2%) व वेटएबल सल्फर (0.4%) का भी 2 से 3 बार छिडकाव करें | |
06. | गीली सडन | पेक्टोबैक्टेरियम क्रीईसंथेमी | यह सामान्यतः बरसात में होती है इससे सडन उत्पन होती है जिसकी शुरुआत जड़ों से होती है |इसके कारण पौधा ज्यादा दिन जीवित नहीं रहता | | एंटीबायोटिक तथा स्ट्रिप्टोसाईंक्लीन (300 मिली. ग्रा. एक लीटर पानी में मिलाएं) का छिडकाव करें | तथा ध्यान रखें की रोपण क्षेत्र ज्यादा गीली न हो| |
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एलोवेरा के फसलों का उत्पादन एवं उनका उचित प्रबंधन –
- एलोवेरा की खेती में लगभग 12 से 15 माह के बाद इसकी कटाई की जा सकती है,
- इसके कटाई के समय ध्यान रखना चाहिए जिससे की पेड़ो को नुकसान न पहुंचे क्योंकि आप एक बार पौधे के रोपण से 3 से 4 वर्षो तक इससे उत्पादन ले सकतें है |
- आपको बस केवल परिपक्व पत्तो की ही कटाई करनी चाहिए | प्रथम कटाई के पश्चात 45 दिन के अन्तराल में आप दुबारा निचे के पत्तो को काट सकतें है |
- आपको एक एकड़ में लगभग 20 से 50 टन का उत्पादन प्रतिवर्ष मिल जाता है तथा द्वितीय एवं तृतीय वर्ष के उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है |
- इससे होने वाला लाभ बाजार भाव पर निर्भर करता है किन्तु एक एकड़ में 4 वर्षो के उत्पादन से लगभग 3 से 4 लाख तक की कमी की जा सकत है |
एलोवेरा का बीज कंहा मिलता है aloe vera ke beej kaha milta hai ये किसान भाइयों के लिए एक बड़ी समस्या रहती है इसके समाधान के लिए हम निचे link दिए है जहाँ से आप जाकर एलोवेरा का बीज खरीद सकते है |
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